चिन्ता चिता समान है !
तनाव आज के युग की एक प्रमुख समस्या के रूप में उभर कर सामने आ रहा है। आधुनिक आयुर्विज्ञान ने चेचक, हैजा, टी.बी. जैसी बीमारियों पर काबू पा लिया लगता है पर और नई नई बीमारियां - मानसिक तनाव, अवसाद, हृदय रोग, कैंसर, दमा, डायबिटीज़, अल्सर और एड्स आदि बीमारियां मानों काल सर्प की भांति मुंह उठाये मनुष्य जाति की ओर बढ़ी चली आ रही हैं। इन बीमारियों को आधुनिक सभ्यता की देन माना जाता है। मानसिक तनाव अनेक कष्टों, असुविधाओं व बीमारियों का जनक तो है ही, यह स्वयं में भी एक बीमारी का स्वरूप ले रहा है।
जीवविज्ञान की प्राथमिक जानकारी भी यह जानते के लिये पर्याप्त है कि जब भी हम किसी संकट का अनुभव करते हैं तो हमारे शरीर में एड्रेनलिन (adrenalin) नामक रसायन बनता है जो हमारे रक्त में मिल जाता है। हमारे रक्त में होने वाला यह रासायनिक परिवर्तन हमें इस योग्य बनाता है कि हम उस संकट का मुकाबला - भाग कर या लड़ कर - कर सकें। अंग्रेज़ी में इस रसायन के लिये एक मुहावरा प्रचलित है Adrenalin prepares us for FIGHT or FLIGHT !
स्पष्ट ही है कि एड्रेनलिन का रक्त में आकर मिलना एक आपद् धर्म है जो संकट अथवा उत्तेजना के समय हमारी रक्षा हेतु सहायक सिद्ध होता है। इसके प्रभाव से हमारा रक्त संचार तीव्र हो जाता है, ब्लड प्रेशर बढ़ जाता है। यह हमारे लिवर में मौजूद शर्करा को रक्त में भेजता है, हमें अधिक शारीरिक मेहनत करने के लिये शारीरिक रूप से तैयार करता है। कुल मिला कर कह सकते हैं कि यह हमारे शरीर के भीतर प्राकृतिक रूप से निर्मित एक ऐसी दवा है जो खिलाड़ियों को, योद्धाओं को जी - जान लड़ा देने के लिये सन्नद्ध करती है। किन्तु यदि हम अक्सर उत्तेजित होते रहते हैं, चिंतित रहते हैं, संकट में फंसते रहते हैं तो इस एड्रेनलिन का रक्त प्रवाह में बार-बार आकर मिलना हमारे लिये हानिकर होने लगता है।
हमारे रक्त की रासायनिक संरचना अपने आदर्श स्वरूप में उस समय होती है जब हम शान्त एवं प्रसन्न होते हैं व जीवन के प्रति सकारात्मक, आशावादी दृष्टिकोण लिये रहते हैं। उद्वेग, क्रोध, उत्तेजना, घृणा आदि आदि हमारे रक्त में अवांछनीय व प्रतिकूल परिवर्तन करते हैं। कुछ चिकित्सा वैज्ञानिकों ने इस संबंध में कुछ और भी मनोरंजक प्रयोग किये हैं। उदाहरण के लिये, हम सभी जानते हैं कि हमारा भोजन जब आमाशय में पहुंचता है तो वहां गैस्ट्रिक जूस बन कर हमारे भोजन में मिल जाता है और उसे हज़म करने में मुख्य भूमिका निभाता है। पर इन प्रयोगों से प्रमाण मिले कि जब हम तनाव में होते हैं तो हमारे आमाशय की दीवारों से इस गैस्ट्रिक जूस के फव्वारे छूटने लगते हैं। दूसरी ओर, यदि हम गुस्से में होते हैं तो गैस्ट्रिक जूस बनना बन्द हो जाता है।
जिस समय फव्वारे छूटने की स्थिति हो, उस समय यदि हमारे आमाशय में भोजन उपलब्ध हो, तब तो वह गैस्ट्रिक जूस न्यूनाधिक रूप से इस्तेमाल हो जाता है वरना उसकी स्थिति जिन्न वाली होती है - "या तो मुझे खाने को दो वरना मैं तुझे ही खा जाऊंगा।" यह गैस्ट्रिक जूस जो वैजिटेरियन, नान-वैजिटेरियन हर प्रकार के भोजन को गला सकता है, भोजन न मिलने की स्थिति में हमारे आमाशय की दीवारों को ही खाना शुरु कर देता है।
अगर हम तनाव में रहने का शौक पाले हुए हैं तो हमें पेप्टिक अल्सर जैसी बीमारियों के लिये स्वयं तो तैयार कर लेना चाहिये जिसका कोई आसान इलाज चिकित्सकों के पास नहीं है। हमें पता ही होगा कि पेप्टिक अल्सर आमाशय की दीवारों में मौजूद घावों को कहते हैं जो गैस्ट्रिक जूस की अधिकता से बनने लगते हैं। सामान्यतः हमारे आमाशय की दीवार इस प्रकार की होती है कि गैस्ट्रिक जूस उस पर प्रभाव नहीं डाल सकता परन्तु यदि हमें तनाव पालने का शौक है तो बकरे की माँ कब तक खैर मनायेगी। देर से ही सही, आमाशय की दीवार की सुरक्षा परत जवाब देने लगती है और उसका दुष्परिणाम अल्सर के रूप में हमारे सामने आता है।
कुछ लोग कह सकते हैं कि तनाव से बचा भी तो नहीं जा सकता। जीवन में सफलता हासिल करनी है तो तनाव तो झेलना ही पड़ेगा। आज की भागमभाग वाली जिन्दगी ही ऐसी है कि थोड़ा बहुत तनाव अवश्यंभावी है। पर क्या वास्तव में ही ऐसा है? सबसे पहली बात जो समझनी चाहिये वह ये कि तनाव यदि हो तो उसे सार्थक दिशा देनी चाहिये। यदि तनाव हमें कार्यक्षेत्र में जुट जाने के लिये विवश करता है तो यह तनाव का सार्थक उपयोग है। ऐसा होने पर तनाव हमारे शरीर पर कोई भी दुष्प्रभाव नहीं डालता है। पर अगर हम तनाव को खाली बैठे - बैठे चिंतामग्न होकर, सिगरेट पी - पी कर, शराब की बोतलों में स्वयं को डुबा कर भूलना चाहते हैं तो हमसे बड़ा दुश्मन हमारा दूसरा कोई नहीं हो सकता। यदि हम ऐसा करते हैं तो इसका केवल एक ही सकारात्मक पक्ष हो सकता है - आप अपने चिकित्सक के परिवार का भरण पोषण करने में सहायक सिद्ध हो रहे हैं। या असमय अपनी मृत्यु को दावत देकर अपने परिवार के लिये अपने बीमे की रकम का प्रबंध कर रहे हैं। पर इससे आपको स्वयं को तो कोई लाभ नहीं होगा न?
तनाव किन - किन कारणों से होता है? यहां यह उल्लेखनीय है कि तनाव से हमारा आशय उस स्थाई स्थिति से है जो हम अपने भीतर अनुभव करते हैं। क्षणिक तनाव तो जीवन का अविभाज्य हिस्सा है और यह किसी बीमारी का द्योतक नहीं है। इस विषय पर अनेक शोध चिकित्सा वैज्ञानिकों, मनोवैज्ञानिकों व समाजशास्त्रियों ने किये हैं और आज भी अनेकानेक प्रयोग चल रहे हैं। यहां तनाव के कारणों की बहुत विस्तार से चर्चा करना अनावश्यक है। हां, कुछ सामान्य, दैनंदिन कारणों का जिक्र किया जा सकता है।
1- आपसी संबंधों में विश्वास की कमी आजकल टेंशन का प्रमुख कारण बन गयी है। यदि माता-पिता को अपने बच्चों पर और बच्चों को अपने माता-पिता पर विश्वास नहीं है, पति-पत्नी को एक दूसरे पर विश्वास नहीं है, मालिक को अपने कर्मचारी पर और कर्मचारियों को अपने मालिक पर विश्वास नहीं है तो तनाव स्वाभाविक ही है। क्या यह टेंशन दवाओं से दूर हो सकती है? शायद कभी नहीं। यदि तनाव का कारण अविश्वास है तो परस्पर संवाद को बेहतर बना कर ही इस दुष्चक्र से मुक्ति पाई जा सकती है। क्या आप अपने बच्चों के साथ खेलते - कूदते, हंसते - गाते हैं? आप अपने बच्चे से आखिरी बार कब गले लगे थे ? 'मुन्ना भाई' की भाषा में कहूं तो 'जादू की झप्पी' में वाकई जादू होता है, समस्त तनाव, अविश्वास बह कर निकल जाते हैं। पति-पत्नी यदि सुबह - शाम साथ साथ कंपनी बाग में टहलें, एक दूसरे की बातें सुनें तो दिल के अनेकों गुबार निकल जाते हैं और मन पुनः स्वच्छ, निर्मल हो जाता है।
2- हर वह काम जो अंतिम तिथि के लिये टाला जाता है, घोर तनाव का कारण बन जाता है। मान लीजिये, आज 31 तारीख है और रिटर्न दाखिल करने की अंतिम तिथि है। आप यदि इस अंतिम तिथि को ही अपने सी. ए. के पास जाते हैं तो सी. ए. और अपने, दोनों के लिये घोर तनाव का कारण बन जाते हैं। एक अन्य उदाहरण लें ' आज फोन का बिल जमा करने की अंतिम तिथि है और दोपहर 1 बजे के बाद जमा नहीं हो सकता। आप 12 बजे स्कूटर उठाकर बिल जमा करने के लिये निकले, रास्ते में जाम लगा हुआ है, क्या आपको बाकी लोगों से अधिक तनाव नहीं होगा? सड़क पर कोई जलूस निकल रहा हो सकता है जिसके कारण पुलिस अधिकारियों ने मार्ग बदल दिया होगा, आप संकरी गलियों में फंस सकते हैं। बार-बार घड़ी देखते रहेंगे, कोई आपसे आगे निकलने की कोशिश करेगा तो आप उससे हाथापाई भी कर सकते हैं। क्या इस टेंशन को दवाओं से दूर किया जा सकता है? क्या इस टेंशन का कारण आप स्वयं नहीं हैं? समय प्रबंधन एक ऐसी कला है जिसको सीखना व व्यवहार में लाना आपको अनेक रोगों से मुक्ति दे सकता है ।
3- अनेक बार आपने अनुभव किया होगा कि इससे पहले कि कोई दूसरा आपकी गलती की ओर इंगित करे, आपसे शिकायत करे, अपनी गलती को तुरंत स्वीकार कर लेने से आप बहुत बड़े तनाव से बच जाते हैं। एक तो आपकी गलती आपको बताई जाये तो आप तुरंत बचाव की मुद्रा में आ जाते हैं, येन-केन - प्रकारेण अपने आप को सही सिद्ध करने की चेष्टा करते हैं, बहस में उलझ जाते हैं। बहस जितनी लंबी चलती है, आपके लिये अपनी गलती को स्वीकार करना उतना ही मानसिक रूप से कष्टदायक होता जाता है। संबंध खराब होते चले जाते हैं। इसके सर्वथा विपरीत, यदि आप गलती होते ही, दूसरे के मुंह खोलने से पहले ही अपनी गलती को स्वीकार करते हुए क्षमा याचना कर लें तो दूसरा व्यक्ति ला-जवाब हो जाता है। अब वह ये तो कह नहीं सकता कि - नहीं, तुम्हारी ही गलती थी। ये कहने की गुंजाइश आपने छोड़ी ही नहीं ! हो सकता है वह ये कहे कि चलो जाने दो, कभी कभी हो जाता है। ज्यादा भला इंसान हो तो यह भी कह सकता है - नहीं, नहीं, आपकी कोई गलती नहीं थी, आप क्यों शर्मिन्दा हो रहे हैं। अगर कोई गज़ब का भला इंसान हुआ तो इतना भी कह डालेगा - अरे, नहीं, गलती असल में मेरी ही थी। आपका कोई दोष नहीं है। अगर वह ऐसा कहे तो आप भी अड़ जाइये कि नहीं जी नहीं, गलती आपकी नहीं मेरी थी। बहस का यह भी एक तरीका है पर इसमें मुहब्बत का सागर ठाठें मारता है और पहले तरीके की बहस में क्रोध और घृणा का तूफान निगलने को आता है।
4- एक परिदृश्य जो पहले जमाने में अकल्पनीय होता, अब घर घर में दिखाई दे रहा है। पहले स्कूल के बच्चों को होमवर्क का टेंशन हुआ करता था, अब बच्चों के माता-पिता ही अपने बच्चों के लिये तनाव का स्रोत बन गये हैं। 'मेरे पड़ोसी के बच्चे के नंबर मेरे बच्चे से अधिक कैसे?'' यह हीनग्रंथि भारतीय माताओं - पिताओं को डंस रही है और इसका घातक परिणाम ढो रहे हैं उनके बच्चे! बच्चों का रिपोर्ट कार्ड माता-पिता द्वारा पड़ोसी को नीचा दिखाने या खुद की निगाहें नीची करने का कारण बन रहा है। बच्चे के गणित में 100 में से 100 नंबर आ जायें तो भी माता पिता कहते हैं - ''और मेहनत करो, और अच्छे नंबर लाओ।'' यदि कोई बच्चा अपने माता-पिता की अपेक्षाओं पर खरा न उतर पाये या परीक्षा की कापियां जांचने वाले की आपराधिक लापरवाही से वह असफल घोषित कर दिया जाये तो बच्चा अपने माता-पिता का सामना करने के स्थान पर रेल की पटरी पर जाकर लेट जाना श्रेयस्कर समझता है या पंखे से लटक कर जान दे देता है। पीछे रह जाती है छाती पीट पीट कर रोती मां जो कहने को तो बच्चे को बहुत प्यार करती है पर दुःख की उस घड़ी में कोई उसे यह नहीं बता पाता कि वह स्वयं अपने बच्चे की सबसे बड़ी दुश्मन थी। बच्चों की उपलब्धियों पर माता-पिता को गर्व होना स्वाभाविक है पर जब माता-पिता बच्चे से अधिक उसके नंबरों से, क्लास में उसकी पोज़ीशन से प्यार करने लगें तो बच्चों के तनाव का कोई अन्त नहीं होता।
इस समस्या का एक और कोण भी है। अक्सर माता-पिता अपने प्यार को प्रदर्शित करने के लिये बच्चों को उपहार जैसे - मोबाइल फोन, स्कूटी, मोटर साइकिल आदि दिया करते हैं पर उनके दिल का हाल जानने की न तो उनकी मानसिकता होती है न ही उनके पास इतना समय होता है। क्या ऐसे माता पिता को कोई बता पायेगा कि परस्पर संवाद की कमी से संत्रस्त उनके बच्चे अक्सर ये सारे उपहार स्वीकार करते हुए भी अपने माता-पिता से नफरत करते हैं!
पिछले वर्ष मुझे यातायात मास के दौरान जिला पुलिस प्रशासन द्वारा सभी स्कूली बच्चों के लिये आयोजित लेख प्रतियोगिता के निर्णायक का दायित्व सौंपा गया तो सहज रूप से ही मुझे 150 के लगभग बच्चों के विचार जानने का, उनके मन के भीतर झांकने का सुअवसर प्राप्त हुआ। लगभग हर बच्चे ने सड़क दुर्घटनाओं के लिये अवयस्क बच्चों को मोटर साइकिल देने वाले, स्कूली बच्चों को मोबाइल फोन दिलाने वाले माता-पिताओं को कटघरे में खड़ा किया। कुछ ने यहां तक लिख डाला कि हमें मोबाइल दिया जा रहा हो बाइक दी जा रही हो तो हम क्यों मना करें। हमारे पिता के पास पैसे हैं, वह हमें ये चीजे़ं देकर खुशी अनुभव करना चाहते हैं तो हम क्यों मना करें। पर अगर कोई दुर्घटना घटती है तो निश्चय ही इसके दोषी हमारे माता-पिता ही होंगे। यह एक कटु सत्य है कि आज कल के नव-धनाढ्य माता-पिता अपने बच्चों को ये महंगे उपहार भी इस लिये नहीं देते कि उनको अपने बच्चों से प्यार है बल्कि इसलिये देते हैं कि पड़ोसियों, दोस्तों के सम्मुख शान से बता सकेंगे कि उनके पास इतना पैसा है कि ''बच्चों की ऐसी छोटी-छोटी जरूरतें आराम से पूरी कर सकते हैं।'' मैने अक्सर माता-पिता के मुंह से सुना है, ''हमें हमारे माता-पिता कुछ नहीं दे सके क्योंकि उनके पास पैसे नहीं थे, पर हमारे पास हैं तो हम अपने बच्चों को क्यों न दें ?''
बिल्कुल सही.....सारी बीमारियो की जड है चिंता....
जवाब देंहटाएंbilkul sahi,chinta hi ek yesi bimari hai jo inshan ko kha jati hai.
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