रूढ़ियां तोड़ने के लिये समाज सुधारक की प्रतीक्षा क्यों ?

श्री राम सेना के तथाकथित हिंदू संस्कृतिवादियों ने जो कुछ किया वह सिर्फ संस्कृति के बारे में उनकी अज्ञानता का ही परिचय था । यह बिलकुल सही है की हिंदू संस्कृति के मौलिक स्वरूप में स्त्री पर घर की चाहरदीवारी में छुप कर बैठे रहने की विवशता कभी भी नहीं लादी गई। अपने लिये योग्य जीवनसाथी के चयन की स्वतंत्रता भी पुरुष से अधिक स्त्री को दी जानी चाहिये, ये आदर्श स्वीकार किया गया है। व्यवहार में स्वयंवर की ऐसी परंपराओं का ज्यादा जिक्र नहीं मिलता होगा पर स्वयंवर की प्रथा को सम्मान तो दिया ही गया है।

सच तो ये है कि गुलामी के बहुत लंबे कालखण्ड में, जबकि हिंदू युवतियों को विदेशी आक्रान्ताओं / शासकों की सेनायें जबरन उठा कर ले जाया करती थीं उस समय यह आपद्‌ धर्म बन गया था कि युवा होने से पहले ही लड़की का विवाह कर दो, और जब तक विवाह न हो, तब तक उसे घर से बाहर निकलने पर प्रतिबंध लगाओ ताकि वह वासना के भूखे सैनिकों की निगाहों से बची रह सके । परंतु इस आपद्‌ धर्म को ही हिंदू संस्कृति का अनिवार्य अंग समझ लेना हास्यास्पद है, अपनी अज्ञानता का प्रदर्शन मात्र है। अक्सर घर के बड़े बूढ़े अपने बच्चों को कुछ भी ऐसा करते देख कर नाराज़ हो जाया करते हैं, जो उनके जमाने में नहीं हुआ करता था । उनका तकिया - कलाम बन जाता है - "अजी, हमारे जमाने में तो ऐसा ना कभी देखा न सुना ! आज कल के लड़के - लड़कियां तो बस ! तौबा तौबा!!" 

परंतु परिस्थितियों में परिवर्तन के साथ साथ आपद्‌ धर्म स्वयमेव बदल जाना चाहिये ! इसके लिये यदि किसी समाज सुधारक की प्रतीक्षा करेंगे तो क्या हम सही अर्थों में स्वयं को शिक्षित कहला सकेंगे? 

रूढ़ियों को टूटना ही होता है, टूटना ही चाहिये ! हर अच्छी चीज़ को स्वीकार करना, चाहे वह नई हो या पुरानी - आधुनिकता की निशानी है । बिना सोचे विचारे हर पुरानी प्रथा को जस का तस स्वीकार करते चले जाना रूढ़िवादिता है, कूप-मंढूकता है। हर पुरानी चीज़ को मात्र इस लिये अस्वीकर कर देना, तिरस्कार कर देना क्योंकि वह पुरानी है - यह भी एक नये प्रकार का अंधविश्वास है। हम आधुनिक तब ही माने जायेंगे जब हम हर चीज़ को - चाहे नई हो या पुरानी, तर्कों की, विज्ञान की कसौटी पर कस कर देखें, भली प्रकार जांचें । अच्छी और उपयोगी लगे तो स्वीकार कर लें, अपना लें। यदि बेकार, असामयिक व कालातीत हो चुकी हो तो रद्दी की टोकरी में सरका दें । इसमे झगड़े की गुंजाइश कहां है, मैं समझ पाने में असमर्थ हूं । 

सही तो ये होता कि तथाकथित श्री राम सेना के उन सिरफिरों को पुलिस के हवाले कर दिया जाता और उनको अनावश्यक पब्लिसिटी दी ही न जाती। बहुत सारी हरकतों को करने का मूल उद्देश्य अखबार और टी वी पर अपने आप को देखना / मात्र अपनी टी. आर. पी. बढ़ाना ही होता है। शायद श्रीराम सेना भी पब्लिसिटी के भूखे लोगों का कोई ग्रुप है। दूसरी ओर मीडिया ने भी इन मूर्खों को पब्लिसिटी देकर अपनी टी. आर. पी. बढ़ाने की ही हरकत की है। 

सुशान्त सिंहल

 

Sushant K. Singhal

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टिप्पणियाँ

  1. पुराणमित्‍येव न साधुसर्वं , न चापि सर्वं नवमित्‍यवयम।
    सन्‍त: परिक्ष्‍यान्‍यतरद भजन्‍ते , मूढ: पर प्रत्‍ययनेय बुद्धि।।
    'जो पुराना है , वह न तो सबका सब ठीक है और जो नया है वह केवल नया होने के कारण अग्राहय है। साखु बुद्धि के लोग दोनो की परीक्षा करके ही स्‍वीकार या अस्‍वीकार करते हें। दूसरों के कहने पर तो मूढ ही राय बनाते हें।'

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